मानसून यानी बारिश के दिनों में पहाड़ों की ओर रुख करना थोड़ा जोखिभ भरा हो सकता है, पर आप इस मौसम में लोहाघाट का रुख कर सकते हैं। बारिश के मौसम में यह स्थान अपेक्षाकृत सुरक्षित माना जाता है। ओक यानी बांज और बुरांश के घने जंगलों से घिरे इस पूरे इलाके के बारे में अभी लोग कम जानते हैं। खासकर प्रचलित पर्यटन स्थलों की तरफ जाने वाले ऐसे स्थानों की कम जानकारी रखते हैं। विशेषज्ञों की मानें तो अभी इस स्थान के प्रचार-प्रसार में कमी है, जिसे दुरुस्त करने की जरूरत है। पर पहाड़ों के अनछुए इलाकों की सैर की बात ही कुछ और है। जहां हिमालय को करीब से देख सकते हैं और इतिहास के पन्नों को जीवंत रूप में महसूस कर सकते हैं। पहाड़ों की संस्कृति का अनूठा रंग देखना हो, तो लोहाघाट खड़ा है आपके इंतजार में।
चंपावत जिला काली कुमाऊं के नाम से प्रसिद्ध है।
साहसिक खेलों का खजाना
अगर आप साहसिक खेलों के शौकीन हैं तो यहां आना और भी मजेदार अनुभव होगा। यहां घाट से लेकर पंचेश्र्वर तक (सरयू नदी), पंचेश्र्वर से बूम तक (काली/शारदा नदी) रिवर राफ्टिंग होती है। यदि ट्रेकिंग का शौक रखते हैं तो चंपावत-कांतेश्र्वर, एकहथिया नौला-मायावती आश्रम, चंपावत-हिंग्लादेवी, मंच-गुरु गोरखनाथ, चंपावत-गौड़ी (जिम कार्बेट ट्रेल), कर्ण करायत-बाणासुर किला, ब्यानधूरा ट्रेक पर आप निकल सकते हैं।
एबट माउंट: पहली किरण के साथ देखें दमकती चोटियां लोहाघाट से करीब सात हजार फीट की ऊंचाई और 13 किलोमीटर की दूरी पर है एबट माउंट। एबट और माउंट दोनों शब्दों का आपस में पुराना संबंध है। ब्रिटिश शासन के दौरान अंग्रेज अधिकारी जॉन हेराल्ड एबट ने इस पर्वत की खोज की थी, इसलिए उन्हीं के नाम इसका नाम एबट माउंट पड़ा। वर्ष 1910 में एबट ने इस पर्वत पर लगभग 586 एकड़ जमीन लीज पर ली और 13 कोठियां बनवाईं। यहां से हिमालय की नंदा देवी, त्रिशूल और नंदाघुती जैसी चोटियों का विहंगम नजारा दिखता है। भोर की पहली किरण पड़ते ही चोटियां दमकने लगती हैं। ऊंचाई पर होने की वजह से एबट माउंट का तापमान काफी कम रहता है। 1930 में एबट ने यहां चर्च भी बनवाया था।
योग साधना का अद्भुत केंद्र: अद्वैत मायावती आश्रम लोहाघाट से 9 किमी दूर बांज व बुरांश के घने जंगलों के बीच स्थित है अद्वैत मायावती आश्रम। यह योग साधना का बड़ा केंद्र है। 3 मार्च, 1899 को इस आश्रम की स्थापना स्वामी विवेकानंद के अंग्रेज शिष्य जेएच सेवियर और उनकी धर्मपत्नी सीई सेवियर ने की थी। 3 जनवरी, 1901 को स्वामी विवेकानंद खुद आश्रम आए और 15 दिन तक यहां रुके। इसके पास ही माई माता मंदिर होने के कारण आश्रम का नाम अद्वैत मायावती आश्रम रखा गया। मायावती आश्रम स्वामी विवेकानंद द्वारा बेलूर में स्थापित श्री रामकृष्ण मठ का ही एक शाखा केंद्र है। यह योग साधना के लिए भी जाना जाता है। यहां आप न केवल कुदरत की निकटता का बोध कर सकते हैं, बल्कि शहरों की कोलाहल से दूर शांति और सुकून भी मिलेगा।
श्यामलाताल: जंगल के बीच झील नैनीताल और भीमताल की तरह यहां एक प्राकृतिक झील है। इसे पहाड़ की सबसे खूबसूरत झील माना जाता है। समुद्र तल से करीब 1500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित श्यामलाताल के चारों ओर से बांज, चीड़, देवदार, बुरांश सहित कई प्रकार की वनस्पतियों ने अपनी आभा बिखेरी है। यहां भी स्वामी विवेकानंद की ध्यान स्थली आश्रम है, जिसकी स्थापना वर्ष 1913 में खुद स्वामी विवेकानंद ने की थी। आश्रम में स्वास्थ्य केंद्र, पुस्तकालय भी है। पूरे वर्ष यह झील अपने इसी रूप में रहती है। चंपावत से आगे बढ़ने पर सूखीढांग से ठीक पहले आप इस झील का दीदार कर सकते हैं।
मानेश्वर मंदिर: यहां है मानसरोवर का जल इस मंदिर का उल्लेख स्कंद पुराण में भी मिलता है। यह भी शिव का धाम है। इसका निर्माण चंद वंशीय राजा निर्भयचंद ने आठवीं शताब्दी में कराया था। यह मंदिर लोहाघाट से तकरीबन 6 किमी. दूर स्थित है। मान्यता है कि जब पांडव पुत्र अपनी माता के साथ अज्ञातवास के दौरान इस जगह पर भ्रमण कर रहे थे तो उसी दौरान आमलकी एकादशी के दिन राजा पांडू की श्राद्ध की तिथि थी और कुंती ने प्रण किया था कि वह श्राद्ध मानसरोवर के जल से ही करेगी। कुंती ने यह बात युधिष्ठिर को बताई। उन्होंने अर्जुन से माता के प्रण को पूरा करने को कहा। अर्जुन ने गांडीव धनुष से बाण मार कर उसी स्थान पर मानसरोवर की जलधारा पैदा की। इसे आज भी यहां देखा जा सकता है।
ऋषेश्र्वर मंदिर: कभी था मानसरोवर यात्रा का पड़ावलोहावती नदी के तट पर स्थित भगवान शिव का यह मंदिर कभी कैलास मानसरोवर यात्रा का पड़ाव था। ऋषेश्र्वर महादेव मंदिर लोहाघाट के लोगों की आस्था का बड़ा केंद्र है। इस मंदिर के पीछे बड़ी दिलचस्प कहानी है। पूर्व में कली गांव से देव डांगर शिवालय आते थे। कहा जाता है कि एक अंग्रेज ने मीना बाजार में देव डांगरों के रास्ते में लोहे का गेट बनवाकर ताला लगा दिया। देवडांगरों ने अक्षत व फूल मारे तो ताला खुल गया। देवताओं की शक्ति देखकर अंग्रेज ने मंदिर में चांदी का छत्र चढ़ाया। लोहाघाट घूमने के लिए आना व बगैर ऋषेश्र्वर महादेव के दर्शन के लौटना अधूरा माना जाता है।
बाणासुर का किला: इतिहास की धरोहर लोहाघाट से करीब 7 किमी. की दूरी पर विशुंग क्षेत्र में है बाणासुर का किला। पर्वतीय शैली में निर्मित इस किले में पत्थरों का उपयोग किया गया है। इसकी बनावट प्राकृतिक मीनार की तरह है। बाणासुर के किले से लोहाघाट नगर का शानदार नजारा दिखता है। माना जाता है कि इस स्थान पर किले का निर्माण चंद राजाओं ने अपनी सीमा की निगरानी के लिए कराया था। इससे नेपाल व अन्य स्थानों से होने वाले आक्रमणों की सूचना मिल जाती थी। एबट माउंट की तरह यहां से भी आप हिमालय की चोटियों का दीदार कर सकते हैं।
हिंगला देवी: पर्वत पर प्रकृति के दर्शन बांज के घने जंगल और पर्वत के शिखर पर स्थित हिंगला देवी मंदिर प्राचीन मंदिरों में से एक माना जाता है। लोहाघाट से 12 किलोमीटर दूर चंपावत आएंगे तो यहां तक आप आसानी से पहुंच सकते हैं। लोक मान्यता है कि इस स्थान से मां भगवती अखिल तारणी चोटी तक झूला (हिंगोल) झूलती थीं, इसी कारण इसे ‘हिंगला देवी’ कहा गया। मान्यता यह भी है कि माता के इस मंदिर के पास एक बड़ी शिला के पीछे खजाना छिपा है और इस खजाने की चाबी मां हिंगला देवी के पास है। यह मंदिर ऐसी जगह पर है, जहां से सिर्फ प्रकृति के दर्शन होते हैं और शांति खुद ब खुद करीब आती है।
बालेश्र्वर: संरक्षित स्मारक चंपावत नगर में स्थित है ऐतिहासिक बालेश्र्वर धाम। यहां मंदिरों के समूह को देखकर आप आश्चर्य में पड़ जाएंगे कि कैसे सातवीं सदी से आज तक इसकी खूबसूरती उसी तरह बरकरार है। मान्यता है कि वानर राज बालि ने वरद नामक शिवलिंग की स्थापना कर इसे शिवधाम का रूप दिया। बाद में राम-रावण युद्ध के दौरान कुंभकर्ण की खोपड़ी इस स्थान पर गिरी तो यह सरोवर बन गया और मंदिर भी जमींदोज हो गया। फिर सातवीं सदी में चंद वंश के पहले राजा सोम चंद ने मंदिर समूह बनवाए। इसे भारतीय पुरातत्व विभाग ने इसे संरक्षित स्मारक घोषित किया है।
रीठासाहिब: मीठे रीठे के लिए प्रसिद्ध रीठासाहिब गुरुद्वारा कुमाऊं का सबसे प्रसिद्ध गुरुद्वारा है। यह इलाका मीठे रीठे के लिए जाना जाता है। यहां सिखों के पहले गुरु गुरुनानक देव अपने प्रिय शिष्य बाला तथा मरदाना के साथ आए थे। मान्यता है कि मरदाना को भूख लगी तो गुरुनानक ने उसे यहां निवास कर रहे गुरु गोरखनाथ के शिष्यों से भोजन मांगकर खाने को कहा। मरदाना ने भोजन का आग्रह किया तो साधुओं ने उसकी तौहीन करते हुए कहा कि जिस गुरु पर तुम्हें इतना गुमान है, वह तुम्हारी भूख क्यों शांत नहीं करते। गुरुनानक ने शांत भाव से मरदाना को सामने खड़े रीठे के पेड़ से फल खाने को कहा। रीठा स्वभाव से कड़वा होता है, पर जैसे ही मरदाना ने फल खाए तो वह मीठा लगने लगा। तब से यहां के गुरुद्वारे का नाम रीठासाहिब पड़ गया। रीठासाहिब तक पहुंचने के लिए लोहाघाट से करीब 65 किमी. की दूरी तय करनी होती है।