630 मीटर (2000 फीट) की ऊंचाई पर स्थित मांडू विंध्याचल पर्वत श्रेणी में 72 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। उत्तर में मालवा का पठार, दक्षिण में नर्मदा घाटी और निमाड़ परमारों के किले को प्राकृतिक सुरक्षा प्रदान करते थे। 612 विक्रम संवत का एक शिलालेख बताता है कि छठी शताब्दी में मांडू समृद्ध और विकसित नगर हुआ करता था। इसे ऋषि माण्डलच्य या मांडवी के नाम से पहचान मिली। माना जाता है कि पूर्व मध्यकाल में पड़ोसी राज्यों के लगातार हमलों की वजह से पारंपरिक परमार राजधानी धार से मांडू स्थानांतरित की गई थी क्योंकि धार मैदानी इलाके में बसा है जबकि मांडू का पहाड़ी क्षेत्र पूरी तरह सुरक्षित था।
परमार शासक समय और परिस्थिति के अनुसार राजधानी धार या मांडू करते रहते थे। ‘आनंद की नगरी’ मांडवी 1300 ई. के आखिर से 1400 ई. तक दिलावर खां गोरी ने मांडू पर शासन किया। उसने मांडू का नाम बदलकर शादियाबाद रखा, जिसका हिंदी अर्थ ‘आनंद की नगरी’ होता है।
कांकड़ा खोह और 12 दरवाजे
मांडू में प्रवेश करते ही सबसे पहले कांकड़ा खोह दिखता है, जहां सैलानियों की खासी भीड़ उमड़ती है। गहरी खाई के मुहाने से आसपास का खूबसूरत नजारा और झरनों की कलकल सैलानियों को खूब भाती है। यहां से विंध्याचल पर्वत की सुरम्य वादियां नजर आती हैं। मालवा और निमाड़ के मैदानों से हरियाली से ढके विंध्याचल पर्वत की ओर चढ़ाई करते हुए मांडू में प्रवेश के लिए 12 दरवाजे हैं। इनमें मुख्य दिल्ली दरवाजा है। इन दरवाजों को तीखे मोड़ों पर सुरक्षा के लिहाज से बनाया गया था, क्योंकि जब आक्रमणकारी सेनाएं इन दरवाजों से मांडू में प्रवेश करने की कोशिश करती थीं तो उनकी रफ्तार धीमी पड़ जाती थी। इससे शासकों को उनका मुकाबला करने का वक्त मिल जाता था और वे आक्रमणकारियों पर दबाव बना लेते थे। भारत के किलों में सुरक्षा के लिहाज से दरवाजे और परकोटे बनाए जाते थे, उसी तरह मांडू में भी खाई से लगी सीमा पर काले पत्थरों से 20 से 30 फीट ऊंचाई के परकोटे बनाकर सुरक्षा प्रदान की गई है। परकोटे में प्रवेश के लिए आलमगीर दरवाजा, भंगी दरवाजा, कमानी दरवाजा, गाड़ी दरवाजा, तारापुर दरवाजा, जहांगीर दरवाजा आदि भी बनाए गए थे, जिनके अवशेष अब भी मौजूद हैं।
ताजमहल के लिए ली प्रेरणा
इतिहास के जानकार बताते हैं कि गोरी वंश के होशंगशाह ने 1400 ई से 1440 तक मांडू में शासन किया। वह गोरी वंश का खास शासकों में माना जाता है। कहा जाता है कि होशंगशाह ने अपने पिता को जहर देकर मार दिया था। जब उसने शासन संभाला तो उसे भी भय सताने लगा कि कहीं उसे भी ऐसी ही मौत न मरना पड़े, इसलिए उसने जीते जी अपना मकबरा मांडू में बनवा लिया था। वैसे उसकी असली कब्र भोपाल के पास होशंगाबाद में है जो गोरी शाहवली के नाम से जाना जाता है। मांडू में यह मकबरा भारत में संगमरमर का ऐसा पहला स्मारक है, जिसे देख मुगल बादशाह शाहजहां भी प्रभावित हुआ था। बाद में शाहजहां ने अपने वास्तुविद अब्दुल हमीद को मांडू के इस मकबरे को देखने भेजा और बाद में इससे मिलते-जुलते डिजाइन में आगरा में ताजमहल बनवाया। दोनों इमारतों में अंतर सिर्फ यह है कि होशंगशाह के मकबरे की छत के चारों ओर छोटे गुंबद हैं, जबकि ताज के चारों ओर मीनारें हैं।
रानी रूपमती और बाजबहादुर के अमर प्रेम का साक्षी
1542 ई. में शेरशाह सूरी ने मांडू पर जीत हासिल करने के बाद सूबेदार के रूप में शुजात खान को यहां की जिम्मेदारी सौंपी थी। शुजात खान की मौत के बाद उसके बेटे मलिक बायजीद ने खुद को मांडू का राजा घोषित कर दिया। वह बाद में बाज बहादुर के नाम से जाना गया। मांडू को बाजबहादुर और रानी रूपमती के अमर प्रेम के साक्षी नगर के रूप में भी जाना जाता है। बाजबहादुर शिकार का शौकीन होने के साथ-साथ संगीत का भी जानकार था। एक बार बाजबहादुर शिकार करने जंगल में गया था, जहां उसे रूपमती दिखाई दी। उसके सौंदर्य पर बाजबहादुर मोहित हो गया। रूपमती मांडू के समीप धरमपुरी की रहने वाली थी और वह भी संगीत में गहरी रुचि रखती थी। दोनों का संगीत प्रेम देखते-देखते प्रेम में तब्दील हो गया। तत्कालीन मुगल बादशाह अकबर को जब खबर लगी कि बाजबहादुर ने स्वयं को मांडू का शासक घोषित कर लिया है, तब उसने अपने चचेरे भाई आजम खान को सेना के साथ मालवा पर आक्रमण के लिए भेजा। सारंगपुर में उसका बाजबहादुर से युद्ध हुआ। इसमें बाजबहादुर मारा गया। उसकी मौत के बाद आजम खान ने रानी रूपमती से शादी करना चाही, लेकिन रूपमती ने हीरा चाटकर जान दे दी।